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कल्याण (1938), वर्ष 13 अंक 1 का आवरण पृष्ठ। इसी अंक में गीता प्रेस ने पहली बार रामचरितमानस छापी थी। रामचरितमानस के गुटका संस्करण का आवरण पृष्ठ, सुंदरकाण्ड का आवरण पृष्ठ

अथ रामचरितमानस प्रकाशन कथा: गीता प्रेस, गोरखपुर ने 1938 से रामचरितमानस का प्रकाशन शुरू किया

गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं सदी के अंत में रामचरितमानस की रचना की थी, जबकि वाल्मीकि ने करीब 3,000 साल पहले इसे संस्कृत में लिखा था। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि रामचरितमानस के प्रकाशन के लिए गीता प्रेस ने कितना शोध और अध्ययन किया होगा
 |  Satyaagrah  |  Dharm / Sanskriti

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रामचरितमानस के अब तक जितने भी संस्करण निकले हैं, उनमें गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित मानस सर्वोत्कृष्ट और प्रामाणिक है। शुद्ध पाठ के अलावा इसमें जितने रेखा चित्र और रंगीन चित्र दिए गए हैं, उतने शायद ही मानस के किसी संस्करण में हों। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मानस के प्रकाशन के लिए भाईजी और उनके सहयोगियों ने काफी शोध और अध्ययन किया। जगह-जगह से पाण्डुलिपियों की नकल मंगाई, तब जाकर इसे प्रकाशित किया जा सका।

गोस्वामी तुलसीदास ने बोलचाल की भाषा में रामचरितमानस लिखी, पर इसे घर-घर तक गीता प्रेस ने पहुंचाया। गीता प्रेस, गोरखपुर ने 1938 से रामचरितमानस का प्रकाशन शुरू किया। इसके पहले बाजार में उपलब्ध रामचरिमानस की कीमत अधिक होने के कारण यह आम आदमी की पहुंच से बाहर था। 1883 में चद्रप्रभा छापाखाना (बनारस) में छपी रामचरितमानस की प्रति का मूल्य चार रुपये था। दूसरी ओर, गीता प्रेस में 1945 में छपी रामचरितमानस (गुटका संस्करण, कुल पृष्ठ 678) का मूल्य मात्र आठ आने अर्थात 50 पैसे था। 2019 में इस गुटका संस्करण का मूल्य बढ़ कर 60 रुपये हो गया।

गीता प्रेस ने पहली बार 1938 में भावार्थ सहित रामचरितमानस छापी थी। यहकल्याणका वर्ष-13 अंक-1 था। 1939 में गुटका संस्करण छपा, जिसमें भावार्थ नहीं था। तब से अब तक इस संस्करण की एक करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। गीता प्रेस ने मानस के प्रकाशन से पूर्व लगभग पांच साल (1933-1938) तक इस विषय पर गहन शोध किया। इसी कारण गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामचरितमानस का पाठ सबसे शुद्ध पाठ माना जाता है। जब रामानन्द सागर ने धारावाहिक रामायण बनाने का निश्चय किया, तब उन्होंने भी शोध किया था। उन्होंने वाल्मीकि रामायण (संस्कृत), कृत्तिवास (बांग्ला रामायण), कंबन (तमिल रामायण) का हिन्दी अनुवाद और हिन्दी में प्रकाशित रामचरितमानस का अध्ययन किया था। गीता प्रेस, गोरखपुर में कुछ दिन रह कर उन्होंने शोध कार्य किया था। लॉकडाउन में 30 साल बाद जब दूसरी बार दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण हुआ, तब 16 अप्रैल, 2020 को इसे 7.70 करोड़ लोगों ने देखा, जो विश्व रिकॉर्ड है।

गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं सदी के अंत में रामचरितमानस की रचना की थी, जबकि वाल्मीकि ने करीब 3,000 साल पहले इसे संस्कृत में लिखा था। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि रामचरितमानस के प्रकाशन के लिए गीता प्रेस ने कितना शोध और अध्ययन किया होगा। मानस की सबसे प्राचीन मुद्र्रित लीथो प्रति 1762 की है। इसका प्रकाशन केदार प्रभाकर छापाखाना, काशी में किया गया था। इसमें चौपाइयां अलग-अलग पंक्तियों में होकर लगातार छपी हुई हैं। मानस की दूसरी प्रति 1810 की है, जिसे संस्कृत यंत्रालय, काशी ने छापा है। तीसरी छपी प्रति 1839 की है, जिसे मुकुंदीलाल जानकी छापाखाना, कोलकाता में छापा गया था। कहने का मतलब है कि 1762 से पहले रामचरितमानस या उसके अंश हस्त लिखित पाण्डुलिपि के रूप में ही उपलब्ध थे, जिन्हें मूल या अन्य किसी पाण्डुलिपि से नकल कर के तैयार किया गया था। संभव है पुनर्लेखन में गलतियां भी हुई होंगी। इसके अतिरिक्त महाकवि तुलसीदास ने भी अपनी रचना को आकर्षक बनाने के लिए बाद में कुछ संशोधन भी किए होंगे।

गीता प्रेस ने जब रामचरितमानस के प्रकाशन का फैसला किया, तबकल्याणके आद्य संपादक और गीता प्रेस के आधार स्तंभ ब्रह्मलीन श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार उपाख्य भाईजी (1892-1971) ने हस्तलिखित सर्वाधिक प्राचीन पाण्डुलिपि की तलाश की। इस सिलसिले में वह 1933 में तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर (चित्रकूट) जाने वाले थे, लेकिन गीता प्रेस में कुछ जरूरी काम गया तो उन्हें गोरखपुर ही रुकना पड़ा।

बाद में वह अस्वस्थ हो गए। इसलिए उन्होंने अपने विश्वासपात्र श्री गम्भीर चन्द दुजारी जी (1901-1962) और श्री चिम्मनलाल गोस्वामीजी (1900-1974) को राजापुर भेजा। गोस्वामीजी हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी तीनों भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे। दोनों को वहां अयोध्याकांड की हस्तलिखित पाण्डुलिपि मिली। कुछ दिन रह कर दोनों ने उसकी नकल की। इसके बाद दोनों श्रावणकुंज (अयोध्या) गए और वहां बालकाण्ड की हस्तलिखित पाण्डुलिपि की नकल की। जाने-माने लेखक और दुजारी जी के वयोवृद्ध पुत्र हरिकृष्ण दुजारीजी, जो गीता प्रेस में अवैतनिक कार्य करते थे, ने बताया कि पूरी सामग्री लेकर गम्भीरचन्द दुजारी जी और चिम्मनलाल गोस्वामीजी गोरखपुर आए।

इस बीच चिम्मनलालजी के पिता की तबीयत बहुत खराब हो गई और उन्हें बीकानेर जाना पड़ा। उनके साथ आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी भी गए, जो उन दिनों गीता प्रेस में ही काम करते थे। वह हिन्दी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। बाद में आचार्य नन्द दुलारे विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) के कुलपति बन गए थे। इन दोनों ने पाण्डुलिपियों के बारे में बीकानेर में ही आपस में विचार-विमर्श, चिंतन और शोध किया। इस दौरान दोनों भाईजी के संपर्क में रहे। वह भी अपने राजस्थान के रतनगढ़ स्थित पैतृक निवास चुके थे और वहीं सेकल्याणका सम्पादकीय कार्य देख रहे थे।

हरिकृष्ण दुजारीजी ने बताया कि काफी मशक्कत के बाद रामचरितमानस की कई पाण्डुलिपियां ढूंढी गर्इं, लेकिन उत्तर प्रदेश में लखीमपुर के धौरहरा स्थित दुलही ग्राम से सुंदरकांड की जो प्रति मिली, वह तुलसीदास की हस्तलिखित लगती है। 1938 में जबकल्याणका 928 पृष्ठों वाला मानसांक निकला, तब इसकी 40,600 प्रतियां छपी थीं, जो हाथोंहाथ बिक गर्इं। लिहाजा, ‘कल्याणके नियमित ग्राहकों को भी इसे नहीं भेजा जा सका। इसलिए उसी वर्ष 10,500 प्रतियां और छापी गर्इं। साथ ही, मानसांक के दो परिशिष्ट भी निकाले गए। इन्हें मिला कर यह मानसांक 1122 पृष्ठ का हो गया।कल्याणका वार्षिक मूल्य उस समय चार रुपये तीन आना अर्थात 4 रुपये 18 पैसे था।

पूरे वर्ष मेंकल्याणके 1762 पृष्ठ छपे। इसमें गीता प्रेस को हजारों रुपये का नुकसान हुआ। दुजारीजी ने बताया कि भाईजी ने इस नुकसान का भार गीता प्रेस पर नहीं डाला। इस नुकसान की भरपाई उन्होंने अपने स्रोतों और मित्रों के माध्यम से की थी। मानसांक में रामचरितमानस और तुलसीदास पर कई लेख भी छपे हैं। रामचरितमानस एक काव्य है। इसलिए इसके चिंतन और शोध में संगीत का ज्ञान भी आवश्यक है। भाईजी को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का भी ज्ञान था। उन्होंने कुछ समय तक शास्त्रीय संगीत सम्राट श्रीविष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872-1931) से शिक्षा ली थी। चिम्मनलालजी को भी गायन का ज्ञान था। उनकी आवाज भी बहुत अच्छी थी। वह जब तुलसी की विनय पत्रिका और रामचरितमानस का गायन करते थे, तो लोग मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। रामचरितमानस में सात कांड हैं, जिनमें 27 श्लोक, 4608 चौपाई, 1074 दोहे, 207 सोरठा और 86 छन्द हैं। प्रकाशन से पूर्व हर श्लोक, चौपाई आदि पर एक बार नहीं, कई-कई बार भाईजी, चिम्मनलाल गोस्वामीजी और नन्द दुलारे बाजपेयीजी ने आपस में विचार-विमर्श किया। मानसांक मेंसम्पादक का निवेदनशीर्षक से भाईजी ने लिखा है, ‘श्री गोस्वामीजी के हाथ का लिखा ग्रन्थ तो कहीं मिला नहीं; और हस्तलिखित अथवा मुद्रित जितने भी नए पुराने संस्करण मिले, उन सभी में पाठ भेद की प्रचुरता मिली। ऐसे भी अनेक पाठ भेद हैं, जिनमें अर्थ में महत्वपूर्ण अन्तर पड़ जाता है। इसमें किसी की नीयत पर सन्देह, दोषारोपण नहीं किया जा सकता है।

ईसाई मत के प्रचार के लिए भारत में पहला छापाखाना

भारत में पहला छापाखाना पुर्तगाल से गोवा आया था। इसे 1556 में सेंट पॉल नामक कॉलेज में लगाया गया। इसमें पुर्तगाली भाषा में ईसाई मत के प्रचार के लिए पुस्तकें छापी जाती थीं। गोवा तब एक पुर्तगाली उपनिवेश था। कुछ समय बाद गोवा में सेंट एग्नेस  कॉलेज में एक और छापाखाना शुरू हुआ। इसमें भारतीय भाषाओं में पुस्तकें छपने लगीं। इसमें फादर टॉमस स्टीफेंस की मराठी भाषा मेंक्राइस्ट पुराणछपी।

तुलसीदास की अन्य रचनाएं

रामचरितमानस के अतिरिक्त गीता प्रेस ने गोस्वामी तुलसीदासजी की अन्य रचनाएं भी प्रकाशित की हैं। इनमें वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, रामाज्ञा प्रश्न, कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनय पत्रिका, जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक आदि शामिल हैं।

अपने संगीत शिक्षक की आर्थिक मदद

कम आयु में श्री विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872-1931) की दोनों आंखों की रोशनी चली गई थी। भाईजी ने इन्हीं से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा पाई थी। पलुस्करजी ने 1909 के आसपास मुम्बई में गांधर्व विद्यालय की स्थापना की थी। इसी प्रयास में वह गंभीर आर्थिक संकट में घिर गए थे। उनका सब कुछ नीलाम होने की नौबत गई थी। दुजारीजी ने बाताया कि ऐसे कठिन समय में भाईजी ने पलुस्करजी की आर्थिक सहायता की थी।

अपनी पुस्तककल्याण पथ: निमार्ता और राही’ (पृष्ठ संख्या 110-111) में डॉ. भगवती प्रसाद सिंह लिखते हैं,‘आय का कोई सबल स्रोत होने के कारण (श्री पलुस्करजी की बम्बई स्थित संस्था पर) 75 हजार रुपये के लगभग ऋण चढ़ गया था।... (पोद्दारजी) यह देखकर बहुत दुखी हुए, किन्तु अपने पास इतना रुपया नहीं था। अत: इन्होंने ऋण लेने का निश्चय किया। संवत् 1980 (सन 1923) में  कतिपय मित्रों और परिचितों से अपने नाम ऋण के रूप में 75 हजार रुपये एकत्र करके इन्होंने विष्णु दिगम्बरजी को ऋणमुक्त करा दिया। इस ऋण का भुगतान बारह वर्ष  बाद संवत् 1992 (सन 1935) में गोरखपुर आने के पश्चात हो पाया। उपर्युक्त ऋणदाताओं में जिन लोगों ने दान रूप में गांधर्व महाविद्यालय को ऋण का धन प्रदान कर दिया, उन्हें छोड़ कर शेष सभी को पाई-पाई चुका दिया, कुछ लोगों को सूद भी दिया। सम्मानित मित्र की इस सहायता से इन्हें (पोद्दारजी को) आन्तरिक प्रसन्नता हुई।

उन्होंने लिखा कि पाठ भेद के दो कारण हो सकते हैं।एक तो मूल से नकल करने वालों में चूक हो गई हो। दूसरा, गोस्वामी तुलसीदास ने कविता को और भी सुन्दर और पूर्ण बनाने के ख्याल से जहां-तहां, जिसमें कि सब लोगों का चित्त उसकी ओर आकर्षित हो, पाठ को बदला हो। बहुत खोजने और जांच-पड़ताल करने पर समय की दृष्टि से हमें तीन प्रतियां पुरानी मिलीं- एक, श्रीअयोध्याजी के श्रावणकुंज का बालकांड जो संवत् 1661 का लिखा है। दूसरा, राजपुर का अयोध्याकांड जो कि श्री गोस्वामीजी के हाथ का लिखा कहा जाता है और तीसरा दुलही का सुन्दरकांड जो संवत्1672 का लिखा है और श्रीगोस्वामीजी के हाथ का लिखा कहा जाता है। उसकी लिपि भी गोस्वामीजी की लिपि से मिलती है। बहुत सुन्दर अक्षर हैं। अतएव बाल, अयोध्या और सुन्दर, इन तीनों काण्डों का उपर्युक्त तीनों के आधार पर और शेष चार काण्डों को श्री भागवतदासजी की प्रति के आधार पर पाठ संशोधन और राजापुर की प्रति में प्राप्त व्याकरण के अनुसार, सम्पादन करके एक छपने योग्य प्रति पं. चिम्मनलाल गोस्वामी एम.. और श्री नन्ददुलारे वाजपेयी एम.. ने मिलकर तैयार की। मानसांक में दोहे, चौपाइयों का अर्थ भी छापा गया है। वह तो केवल शब्दार्थ है और ही विस्तृत टीका ही। उसे भावार्थ कहना चाहिए।

मानसांक के पृष्ठ 1122 पर पोद्दारजी ने लिखा है, ‘मानसांक के सम्पादन में हमें बहुत सज्जनों से सहायता मिली है। इनमें महात्मा श्री अंजनीनन्दन शरणजी से जो सहायता मिली है, वह अकथनीय है। मानस के पाठ निर्णय में और उसका भावार्थ लिखने में आपकी (पुस्तक) मानस-पीयूष से सबसे बढ़कर सहायता प्राप्त हुई है। श्रावणकुंज की और श्री भागवतदासजी की अविकल नकल की हुई प्रतियों को मांगते ही कई बार आपने यहां भेजकर हमें अनुग्रहीत किया है। आप सरीखे सच्चे भक्तों की कृपा ही हमारा सहारा है। इसके अतिरिक्त पं. रामबहोरीजी शुक्ल एम.., पं. चन्द्र्रबलीजी पाण्डेय एम.., महात्मा बालकरामजी विनायक, राय श्रीकृष्णदासजी, पं. हनुमानजी शर्मा प्रभूति ने सामग्री-संग्रह आदि में बड़ी सहायता दी है। सम्पादन कार्य में मेरे सम्मान्य मित्र श्रीगोस्वामीजी और श्रीबाजपेयीजी से सहायता मिली ही है। आदरणीय बन्धु पं. शांतुन बिहारीजी द्विवेदी, भाई माधवजी और श्री देवधरजी से बड़ा सहारा मिला है। अपने अपने ही हैं, इनका नाम भी बड़े संकोच के साथ ही लिखा गया है, केवल व्यवहार दृष्टि से।

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